Page 7 - Vishwa April 2020 Issue.html
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संपादकीय






                             सोशियल शिस्टेंशसंग का सदुपयोग करें







          श्िों के  द्ारा ज्ान का आिान-प्रिान होता है और दििार की प्रदक्रया शुरू होती है। इनहीं दििारों को दलखने के  दलए जब दलदप का
          आदिष्कार हुआ तो रटने के  श्म से मुदक्त दमली और ज्ान को संदित करना और उसे अगली पीदढ़यों तक पहुंिाने का काम सरल हो गया।
          जबदक मानिेतर प्रादणयों में ज्ान, समृदत, संिाि सब वयदक्तगत और सियं से आगे नहीं है। हर मानिेतर प्राणी को अपने दलए समसत ज्ान-
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          दिज्ान दनतांत नए दसर से सीखना होता है। माता-दपता और अपने छोट से समुिाय से अदिक उसक कोई इदतहास, भूगोल, जातीय समृदतयाँ
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          और िांगमय नहीं होत। मानि के  दलए ज्ान, दिज्ान, इदतहास, परंपरा, समाज की एक दनरंतरता होती है जो उसे बहुत क ु छ दिरासत में िेकर
                                                                                   े
          अनािशयक श्म से बिाती है। यही श्म और समय की बित उसक दलए ज्ान-दिज्ान और दिकास ि बहतरी के  नए रासते खोल सकती है।
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              मनुष्यता की समग् दिदशष्टता को यदि एक श्ि में कहा जाए तो िह है ‘पुसतक’, ज्ान का पुंजीभूत दिग्ह।
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              पुसतक को यदि रूढ़ अि्च में ले दलया जाए और मनुष्य की समसत दजज्ासा को दकसी पुसतक दिशेष या उसक माधयम से वयदक्त दिशेष
          से बाँि दिया जाए तो उसकी मनुष्य के  रूप में सभी संभािनाएं समाप्त हो जाती हैं। िह दकसी फकट्री में बने रोबोट या यंत्र से अदिक क ु छ
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          नहीं रह जाता। इसदलए पुसतक कोई दपंजरा नहीं है दजसमें मनुष्य की संभािनाओं का आकाश सीदमत हो जाए। िह तो एक आकाश है
          और आकाश िर आकाश है, अनंत है।
              ऋदष प्रकाश को न तो खुि तक दनयंदत्रत करता है और न ही उसका वयापार करता है। िह तो कहता है– आ नो भद्रा:...........। समसत
          दिशाओं से ज्ान के  प्रकाश का आकांक्ी। उसक दलए सतय ही ईश्र है। िह सतय की दिजय का आकांक्ी है। सतयमेि जयत। सतय जो
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          नयाय है, दनरपेक् और दनष्पक् है। तभी दििार का महत्ि सिीकार करते हुए कहा गया है–
              महान मानस के  वयदक्त दििारों पर ििा करते हैं; सािारण मानस के  वयदक्त घटनाक्रम की बात करते हैं और दनमन सतर के  वयदक्त िूसरों
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          के  बार में बात करते हैं।
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              पुसतकें  इसी दििार की गंगोदत्रयाँ हैं। तभी श्ेष्, दििारिान, िूरद्रष्टा लोग सृदष्ट के  दिकास के  दलए पुसतकालयों का दनमाण करिाते हैं,
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          जगह-जगह से ज्ान के  स्ोत– ‘पुसतकें ’ जुटात हैं। ज्ान और दजज्ासा के  तहत बहुत से संतों और दिद्ानों ने िुदनया के  िूरसि सिानों की यात्राएं
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          की हैं। इसीदलए िलते हुए को ‘सतयुग’ कहा गया है। िरिेदत िरिेदत का मनत्र और कया है ? महापंदडत राहुल अनेक संकट उठाकर दत्बत
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          से बहुत से िुल्चभ ग्नि लाए जो पता नहीं कहा, दकस दिकास की वयसतता के  िलते उपेदक्त पड़ हैं। इसीक बरकस िेखें तो पता िलेगा दक
          कट्टर, नृशंस और अदिनायकतािािी लोगों ने पुसतकालयों को जलाया और दजज्ासु, दििारक और मनीदषयों का क़तल सबसे पहल दकया।
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              श्ेष् दििार और श्ेष् दििार संजोये पुसतकें  ही हर क ुं ठा से मुदक्त का माग्च हैं।
              दििारों के  समनिय और मंिन से मानिता का दिकास ही होता है। संिार, दििार और आिागमन से सािनों के  दिकास के  कारण
          मनुष्य के  िैिाररक दिकास की संभािनाएं बढ़ी हैं। प्रिासी भारतीयों ने अपनी सुदििा और प्रािदमकता से दजन िेशों को िुना है उनहें िे
          भारतीय िांगमय और दििार परंपरा से और समृद्ध बनाएंगे। मेरा सुझाि है दक िे िैिाररक दिरासत को गदतशील रखते हुए अपने िुने हुए
          िेश की दििार समपिा से संिाि कर। उस समाज का एक सदक्रय अंग बनते हुए एक नई िुदनया के  दनमाण में सहभादगता दनभाएं। लेदकन
                                                                                    ्च
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          यह काम िहाँ की श्ेष् पुसतकें  पढ़ दबना नहीं हो सकता। ज्ान और दििार दकसी के  जादत, िम्च, नसल और िेश के  नहीं होत। िे समसत
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          मानिता की समपिा होत हैं।
              1916 में कलयाण पदत्रका के  संपािक और गीता प्रेस के  संसिापक हनुमान प्रसाि पोद्ार ने अमरीका में रंग और नसल भेि की अमानिीयता
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          को रखांदकत करने िाले हेररयट बीिार सटो के  1851 में छपे उपनयास ‘अंकल टोमस के दबन’ का दहंिी अनुिाि दकया िा जो मुझे अपने
          गाँि के  पुसतकालय में 1954 में पढ़ने का सौभागय दमला। कया प्रिासी भारतीय अपने बचिों के  साि अपने मूल िेश और िुने िेशों के  श्ेष्
                                                                                            े
          सादहतय का पठन नहीं कर सकत? कया उनका अनुिाि दहंिी या अपनी दकसी अनय भारतीय भाषा में नहीं कर सकत? यह काम खुि उनहें
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          ही नहीं बदलक कई भाषाओं को समृद्ध करगा।
              संसार के  िुखों के  कारण िसतुगत कम और दििारगत अदिक हैं।
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              याि रखें, िैक ु णठ की राह सदद्िारों को संजोन िाली पुसतकों से ही दनकलगी।
                                                                                                 –रिश जोशरी
                                                                                                    े
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