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लवलत लदेख
 िदेगानी शा्ी में अब्ुलला ्ी्वाना
िचपन से लेकर आज तक मैं जि भी वकसी को वकसी के वलए वकसी भी सदं भ-्श प्रसगं में्हकहतेहुएसनुताहूँवक-‘िेगानीरादीमेंअबदलुलादीिाना',तोपता नहींक्ोंमरेामन,मरेीसोचऔरमरेीभािनासहसाउसअनदखे -ेअनजाने-अनसनुे ‘अबदलु ला’ के साथि जाकर जड़ु जाती ह–ै उसकी पक्षिर िनकर, पैरोकार िनकर, परूीसह-अनभु वूतके साथि!
िचपनमेंसमझउतनीनहींथिी,तथिावपमन्हसोचनेपरमजिरू होजाताथिा वक आवख़र ्ह ‘अबदलु ला’ कौन और कै सा िंदा रहा होगा? उसे अपने मानवसक प्टल पर विजअु लाइज़ करने की तमाम कोवररें करता थिा। मरे े मन में उसके रूप- सिरूप, मन-मरं ा, नीवत-नी्त और आचार-व्िहार को लेकर तरह-तरह के वचत् िनते-विगड़ते रहते थिे।
आज एक िार वफर, िातचीत के क्रम में मरे े एक िेहद अज़ीज़ दोसत ने ख़दु केवलए्हजमुला/महुािराप्र्ोगवक्ा,तोपनु:अबदलुलाकीिेअििनी- अनिनी मानवसक तसिीरें मरे े दृवटि-प्टल पर कौंि ग्ीं। मैं सोचने लगा वक िाकई ‘अबदलुला’आलादजपेकीफ़कीरानातवि्तकाकोईिड़ामसतइसंानरहाहोगा, ख़दु में वनहा्त ख़रु ! साथि ही, औरों की ख़रु ी में ररीक होने को ततपर, आहूत- अनाहूतदसूरोंकेजश्नऔरजलसेमेंरावमलहोनेकोि-मसर्शतमौजदू,हरवक़सम की्द्मभरीव्ािहाररकिनाि्टसेदरू,वकसीभीओढ़ीहुईअथििाथिोवपतकृवत्मता सेपरे,एकदमसीिा-सादा,सहज-सरलऔरअनदरसेपरूीतरहतरलइसंान,जो कवथितरूपसेवकसी‘िेगानीरादी’मेंझमू-झमूकर"दीिाना"होग्ाहोगा्ा्ँू कहें वक िारहा होता रहा होगा। उसकी िो ‘दीिानगी’ (जो सभं ितः उसके वलए सि्शथिा ‘सिाभाविक’ रही होगी) लोगों को इतनी ‘असिाभाविक’ लगी होगी वक िह अनचाहे रूप से अपने सम् और समाज में प्रच्ं िहुमत से, मौन जनसिीकृ वत सेहसँीऔरउपहासका,ग़ैरज़रूरीउतसाहका(िवलक‘अवत-उतसाह’का)एक अजीि उदाहरि िन ग्ा।
आज जि सोचता हूँ वक अपनी और अपनों की रादी में तो हर कोई ‘दीिाना’ हो सकता ह,ै िवलक होता ही ह,ै लेवकन अपने इस ‘अबदलु ला’ का मनमौजीपन, उसकी विराल-हृद्ता तो ग़ज़ि की ह,ै कमाल की ह,ै िेवमसाल ह,ै िेनज़ीर ह,ै लासानी ह,ै वजसने उसे "िेगानी रादी" में ‘दीिाना’ होने की मानवसक सकु ू न िाली ऊँ ची भाि-वसथिवत प्रदान कर दी। आज सोचता हू,ँ तो पाता हूँ वक एक तरफ़ ‘िेगानी रादी’ में ‘दीिानगी’ की मसतीभरी ‘भाि-दरा’ को प्राप् अपना ्ह हृद्जीिी ‘अबदलुला’ह,ैजोिेगानेसखु मेंभीझमूताह,ैनाचताह,ैगाताह।ैदसूरीतरफ़हम औरहमारे्थिाकवथितिवुधिजीिीलोगह,ैंजोकईिारख़दुकेसममखु उपलबिख़दु केहीवहससेकासखुऔरआननदभोगपानेमेंनाकामहोजातेह।ैंिसततुः्ेजो ‘हृद्जीिीअबदलुला’हैन,िोअनदरसेमसतह,ैऔर‘िवुधिजीिीदवुन्ा’अनदर सेत्सतह।ै अनभु ि्हिताताहैवकख़रु ीअनदरसेआतीह।ै ख़रु ी्ाप्रसननता कोईिाह्यजगतकाउतपादनहींह,ै्हतोमलूतःअनतसकीसज्शनाह,ैअनदरसे हीउपजतीह।ै्हअलगिातहैवकइसंानउम्रभरख़रुीऔरसकुूनकीतलार करतेहुएिाह्यजीिनकीमगृ-मरीवचकामेंभ्टकतारहजाताह–ै ‘कसतरूीकंु्ल िसै,मगृ ढूँढ़ेिनमाँवह’जैसीवसथिवत!
आजअगरग़ौरसेदखेाजा्े,तोदसूरोंकीरादी्ावकसीभीरभुका््शमें
 रजतरेन्द्रजौिर
करि, रिक्षक, संपािक संपक्क : आई आर-13/3, ररेणुसागर, सोनभद्र-231218 (उ.प्.) मो. : 9450320472 ईमरेल : jjauharpoet@gmail.com
 अप्रैल 2021 / विशिवा
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