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व्ववश्टि शंखला :
ज्ानपीठ पुरसकार 1966 : िंगला उपन्यासकार ताराशंकर िंद्ोपाध्या्य
प्सतुरत-डॉ. िीपक पाणडडेय
    सिायक रनिरेिक, केंद्रीय रिन्िी रनिरेिालय, रिक्षा मंरिालय, भारत सरकार, िरेसट बलॉक-7, आर के पुरम, नयी रिलली, मो. +91-8929408999 E-mail: dkp410@gmail.com'
िांगलाउपन्ास-कथिाकारतारारकंरिंद्ोपाध्ा्कोउनकेउपन्ास‘गिदिेता’केवलए 1966काज्ानपीठपरुसकारप्रदानवक्ाग्ाथिा।तारारकंरिंद्ोपाध्ा्अपनेसम् केिंगलाउपन्ासकारोंमेंसिसेअविकप्रवसधिरह।ेतारारकंरजीनेअपनेसावहत्में प्रादवेरकजीिनकोव्ापकरूपमेंवचवत्तवक्ाह।ैसावहत्केअध्ेताओंकामाननाहै वकलेखकनेअपनेसावहत्मेंप्रादरे ी्जीिनका्थिाथि्शवचत्िकरतेसम्ऐसाप्रतीत होता है वक वकसी फो्टोग्ाफर ने समाज का ्थिाथि्श वचत् उतारकर रख वद्ा ह।ै तारारकं र िंद्ोपाध्ा् ने भारती् सावहत् के समवृ धि में उललेखनी् ्ोगदान वद्ा ह।ै उपन्ास ‘गिदिे ता’ के सिं ंि में उपन्ासकार का कहना ह–ै “गिदिे ता िंगाल के ग्ाम्जीिन पर आिाररतउपन्ासह।ै कृवषपरवनभर्शरीलग्ामीि-जीिनकीरतावबद्ोंप्राचीनसामावजक परंपरावकसप्रकारपाश्चात्औद्ोवगकक्रावनतकेफलसिरूप्ंत्-सभ्ताकेसघंातमें िीरे-िीरेदमतोड़नेलगीथिी,्हीइसउपन्ासमेंवदखा्ाग्ाह।ै कृवषवनभर्श ग्ाम-जीिन वजनसामावजकपरंपराओंपरव्टकाहुआथिाउनकारूपसभंित्ाससंारकेकृवष-वनभर्श, ्ंत्-सभ्तासेअ्ूतेग्ामीिजीिनमेंसि्शत्एकहीह।ै”
त्र्शंकर बंद्ोप्धय्य
जनम - 23 जलु ाई, 1898 मतृ ्ु - 14 वसतमिर, 1971
‘गिदिेता’गाँिऔरवनरुपा्पलली-समाजकीिेचनैीऔरघिराह्टकीजीितं लेवकन अवभरप् गाथिा ह।ै इसमें कृवष-जीिन और कृवष उतपाद पर आिाररत भारती् ग्ाम समाज के रचनातमक ढांचे के विखरने और इसके फलसिरूप िहाँ के जीिन में आए पतनऔरसखलनकावचत्िह।ैगाँिकेकृवषजीिीमजदरू,जमींदाररोषिऔरसामतंी उतपीड़न के वखलाफ विद्ोह भी करते ह।ैं लेवकन कचची तै्ारी और अपररपकि सोच केसाथिमानिी्कमजोरी(जाती्सिभाि)केचलते्हविद्ोहआवंरकतौरपरही सफलहोपाताह।ै इसकाएककारि्हभीहैवकिहाँकोईवन:सिाथि्शनेततृिनहींह।ै इन पररवसथिवत्ों में दिे ू घोष प्रवतवनविति सिीकार कर विपरीत और असहा् पररवसथिवत्ों में ग्ाम सिु ार के अनेक का््श करता ह।ै लोगों को एकज्टु कर उनमें न्ा आतमविश्वास और मनोिल भरता ह।ै उसकी पात्ता में एक मानतािादी कथिा-वरलपी का सपना साकार होता दीखताह।ैलेखकनेवकसानोंकेजीिनसघंष्शकोिहुतवनक्टसेदखेकरिहाँकीक्रूर सचचाई्ों को गहराई से महससू कर सावहत् में वचवत्त वक्ा ह।ै िंगाल के ग्ाम्जीिन
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